सुबह से ले के शाम तक,
जूतों से ले के गेहूं- दाल तक,
सब खरीदते-बेचते हैं ठाठ में
भीड़ भरी इतवार की हाट में ।
वहां चने भी हैं और खिलौने लकड़ी के,
मई मे जहां लगते हैं ठेले ककडी़ के,
सिक रहीं हैं मूंगफलीयां चटर-चटर
बिक रहे किलो के भाव से मटर।
लाल पीली बंधी सिरों पे पगडी़यां ,
चल रही डाल पैरों में जूतीयां
एक तीली से जला रहे दो बीड़ीयां,
ठंड है, खरीद रहे सस्ती सिगड़ीयां ।
हंस रहा है कालू और उसका बाप भी,
जब नाचे बंदर लय में ढोलक के थाप की ।
समेट रहे कुछ सामान, कुछ गिन रहे दिहाडी़,
कुछ चल पडे़ हैं पकड़ने गांव की गाड़ी।
कई चल पडे़ संजो के हफ़्ते भर के सपने,
पल जाऐंगे सात दिन कुटुम्बी और अपने ।
सब खुश हैं कर ली है एक और हफ़्ते की जुगाड़,
सब आज में ही जीते हैं, जीवन नहीं पहाड़ ।
The above photograph is a copyright of Rakesh Ranjan, it is reproduced here with his permission. Click here or photograph to visit the source.
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वाह इतवारी हाट से रु ब रु करवा दिया..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
बधाई!
yeh to hum aap se phele bhi sun chuke hai, phir padh kar accha laga……
zakhmi
Original and thought provoking…
Fantastic !! It reminded me haat of guruwar ,bittan market along with kaddu(paddu) ka bhaav.
Bahut hi badiya..
हाट के बेलौसपन को खूबसूरती से उभार कर उसे एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष तक बखूबी पहुंचाया है आपने…
जितना छोटा समय का टुकडा़ हम सामने रखते हैं…
पहाड़ सी ज़िंदगी का हर रंग उनमें सिमट आता है….
चिंताओं का परास उतना ही कम हो जाता है…
इस कविता के लिए आपके कवि को विशेष सलाम…
बहुत धन्यवाद आपका !!